Tuesday, October 18, 2011

गीत

गीत
- क्षेत्रपाल शर्मा

डार फ़िर बहुरि गई हरसिंगार की.

वेला सकाल की सोनई भई,
दूर खर औखर,जुत गए खेत
सुर और लय में बयार बही
नवराते गुनगुनाए तितलियों समेत
सुधि आई दशमी, जीत दीप- हार की,
डार ....
कांस फ़ांस से ये नोंक से बबूल
कट गए ,ॠतु बदल रही
लाड़लों को भाए निर्माण का संकल्प
जड़ता कटुता के ओरे सी नींव ढही
हरसाई धान और धरती पियार की.
डार...

पोटरी हैं गंध की ये डंठ
कंद है मकरंद
कभी जड़ और चेतन कहीं
प्रकृति है अचरजभरी औ स्वच्छंद
पर्व रूपी रस गंध के श्रंगार की
डार....फ़िर महक उठी..

1 Comments:

At September 14, 2012 at 12:18 PM , Blogger Asha Joglekar said...

Aha sukha. Harsingar mera bhee bahut priy hai.

 

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