Sunday, September 22, 2013
गीत
....क्षेत्रपाल शर्मा
बालपन में मेरी इच्छाएं गगनचुम्बी थीं
बाद में मैं स्वयं गगनचुम्बी हो गया
देखते ही देखते हाय, अचरज
मैं अंधेरे में कहां , कब खो गया
ये सब समय का खेल है,
भागमभाग रेलमपेल है
खिचडी बनाते न जाने कब
गुरुजी खिचडी पकाने लग गए
बच्चे कलारी बैठकर
पन्नी पिलाने लग गए
घर , सास की अब जेल है
भागमभाग रेलमपेल है .
दुष्कर्मियों के संग में
मासेरे भाई बन गए
कल्याण बस अपना किया
और गोखरू से तन गए
तेलगी , हर्षद कभी
या फ़िर कभी डंकेल है
गली मुहल्ले घंटालों की
एक बाढ सी आई है
टेक रहित हाकिम सब एसे
जैसे जल की काई है
सजे हुए घोडे के , लेकिन
कोई नहीं नकेल है .
गीत
... क्षेत्रपाल शर्मा
किसान और नेता
एक काम से बैठ नहीं सकता
दूसरा रैली बुलाता है
एक परिश्रम से , समवेत है
दूसर दिन सोए, रात जगाता है
एक फावडे का साथी है
दूसरा सिर्फ़ गाल बजाता है
इधर उधर के हथफ़ेर में माहिर
तो वह कमाई कर खाना सिखाता है
एक संस्कृति का संवाहक है
कि बो दो , सींचो और पकने पर काटो
दूसरा छीना और झपट्टा
खसूटो राज करो और बांटो
एक अनपढ पर समझदार है
कि घर संसार चले
दूसरा मक्कार है कि
समाज गले , देश जले
यदि दूसरे को समझ आ जाए
तो किसान का हुलिया बदल जाए
इन दादुरों के बीच
किसान लुप्त न होने पाए
गीत
...क्षेत्रपाल शर्मा
माना तुम काफ़ी सुन्दर हो
और
ज्ञानवान
पर किसी दूसरे की तह
तुमने कैसे पाई
अपने पैमाने से औने पोने में
हो नाप चुके हो , उसकी गहराई
वह सुन्दर जिसके हों काम सुगढ
जिसने घर संसार संवारा हो
हो उसको अपने पर स्वाभिमान
जो अनकिया कहना न गवारा हो
वह सुन्दर जो करके
बिन बोले मन को जीता हो
वह क्या ?जो बात बात पर
बोल बोल कर रीता हो
घोर अभावों को भी हंस हंस कर
वह जो बूढों का रखे मान
तर्पण पूजा उत्सव में
वह जो पूजा पाठी का रखे ध्यान
इतिहास अमर है श्रुति स्मृति से
अपने पत्थर गढता है
जो मान दूसरों का रखे अपने सद्रस
इस जग में मान उन्हीं का बढता है .
गीत
... क्षेत्रपाल शर्मा
यह गीत आरती सा गूंजे घर घर .
जब जगें मां बाप सामने हों
परिवार भरा किलकारी से हो
आपस में स्नेह सुगन्ध तैरती हो
कर्मठता का राग रंग नस नस में हो
लोभ मोह से अपनों से भी दूर रहे
आन पडे तो पल में न्योछावर हो
जैसे समिधा आसीन हुई हो लकड़ी पर
जस पवन लीन हो अग्नी पर
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